Sunday, December 23, 2012

दिल्ली गैंगरेप- आंदोलन नहीं पागलपन


दिल्ली गैंग रेप की जघन्य घटना ने देश को उद्वेलित कर दिया है। वास्तव मे यह जघन्यतम अपराध भी है, लेकिन इसके बाद जो कुछ देश में हुआ वह अभूतपूर्व है। यह कोई अकेली घटना भी नही थी। ऐसी घटनाएं रोज इस देश के हर शहर में घटती है। और इस घटना में तो पुलिस ने सारे अपराधियों को गिरफ़्तार कर लिया लड़की को सर्वश्रेष्ठ उपचार मिल रहा है। एक सरकार इससे ज्यादा क्या कर सकती है?  "महिलायें सुरक्षित नहीं है" का नारा जरूर कई सवाल खड़े करता है। पर इस सवाल का जवाब सरकार और पुलिस के पास नही समाज के पास होना चाहिये। उसी समाज के पास जिसके तोड़ फ़ोड़ हिंसा या तथाकथित शांती पूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोग हिस्सा हैं।


दरअसल यह प्रदर्शन, हिंसा और पागलपन स्वयंस्फ़ूर्त नही है। मीडिया द्वारा चार दिनो से एक ही घटना दिखा दिखा कर, पुलिस को दोषी निकम्मा ठहरा ठहरा कर, उकसाया गया गुस्सा था। शुरू में कैमरा टीमों द्वारा प्रदर्शन की जगह और समय क्षात्रो एवं अन्य संगठनो से तय करके जमा किया जमावड़ा था। टीआरपी का खेल, सनसनी की चाहत में इस बेलगाम मीडिया ने उस ज्वार को पैदा किया जिसमें समस्याओं से त्रस्त और समाधानो से दूर गुस्साया मध्यमवर्ग जुट गया। राष्ट्रपति भवन में घुसने की जिद लगाया अनियंत्रित युवा माब जिसमें महिलाये, बूढ़े, बच्चे भी शामिल थे क्या पुलिस से फ़ुलों के हार की उम्मीद कर रहा था? बधाई की पात्र है दिल्ली पुलिस जिसने दो दिनो की हिंसा और प्रदर्शन को इतने प्रोफ़ेशनल और मानवीय तरीके से अपने जख्मी जवानो अधिकारियों की कीमत पर संभाला। वरना कितने जख्मी होते कितने मरते उसका कोई हिसाब न होता और यही मीडिया गला फ़ाड़ कर "लोकतंत्र की हत्या हो गयी" चीख रहा होता।

"हमारे नेता नपुंसक है", "हमारी पुलिस नपुंसक है" "बलात्कारी को फ़ांसी दो" का नारा लगाने वालो से मै पूछना चाहता हूं कि कहा से आये है ये लोग? इन बलात्कारियों को इसी समाज ने पैदा किया है और नेताओ को भी। और मनोविकार पैदा कौन कर रहा है? जापानी तेल और लिंग वर्धक यंत्र का विज्ञापन कौन छापता है नेता या मीडिया? पुरूष जीन्स के विज्ञापन में अर्धनग्न महिला का फ़ोटो कौन दिखाता है नेता या मीडिया ? महिलाओ के जिस्म की नुमाइश कर अपना माल बेचने वाले बाजार को माध्यम कौन दे रहा है नेता कि मीडिया ??? अपने उकसाये आंदोलन के इस हिंसा के दौर में पहुंचने पर लोगो से शांती और अहिंसा की अपील कर रहे मीडिया ने पत्रकारिता नैतिकता और ढोंग की सारी हदें पार कर दी हैं। खाप पंचायत वाले अपनी बेटियों को जब इस बाजारवाद के दुष्परिणामो से बचाने की कोशिश करते तो यही मीडिया उनको तालीबान करार देता है। फ़ांसी की सजा ही एक समाधान हो सकता है पर इस देश में कानून का कितना दुरूपयोग होता है यह भी किसी से छुपा नही है। जरूरत फ़ोरेंसिक लैब को अत्याधुनिक बनाने और ऐसे जघन्य अपराधों में नार्को एनालिसिस जैसे आधुनिक उपायों को कानूनी जामा पहनाने की है। लेकिन इसकी बात और मांग कर कौन रहा है?
यह आंदोलन तो बिना नेतृत्व, समाधान का बेसरपैर का आंदोलन है। लोकपाल जैसे सशक्त नेतृत्व समाधान और कानूनी प्रस्तावो वाले आंदोलन के साथ इस मीडिया ने क्या किया था? जनता का अंहिसक शांती पूर्ण आंदोलन जब चरम पर पहुंचा तब इसी मीडिया ने उसके पैरो के नीचे से जमीन खसका दी थी। "भीड़ नही आई" की हेडलाईन्स से लेकर तमाम हथकंडे अपनाये गये। मतलब साफ़ है इस मीडिया को आंदोलन के उद्देश्यो से कोई लेना देना नही है। सनसनी फ़ैलाओ, टीआरपी खींचो और जब अपने को पोषित करने वाले वर्ग के हितों में आंच आती नजर आये तो तत्काल कन्नी काट लो। 


दरअसल मध्यमवर्ग में घोटालो महंगाई को लेकर भयानक गुस्सा है, जो आज हिंसा में नजर आ रहा है।। इस गुस्से की लहर फ़ैलाने वाले विपक्ष से भी अनेकों सवाल पूछे जाने चाहिये। कांग्रेस पार्टी की सरकार को महाभ्रष्ट करार देने वाले, चार सौ लाख करोड़ के तथाकथित कालाधन, दो लाख करोड़ से ज्यादा के हर महिने खुलासा होने वाले घोटालों पर चीखते चिल्लाते विपक्षी तब कहां थे जब यह घोटाले हो रहे थे? 2G लाईसेंस की बंदरबाट जब हो रही थी तब क्या भाजपा के महारथी सो रहे थे? जब कोयला खदान फ़ोकट के भाव में बाटी जा रही थी तब ये शरद यादव, वामपंथी  क्या संसद में नही थे? क्या ये इतने नकारा है कि इन्हे पता ही नही चलता? सबके तार जब इस खेल में जुड़े हुये है,  अंबानी के घोटाले के उपर बोलने का साहस जब किसी के पास नही है, तो घोटाला घोटाला क्यों चीखना? सत्ता चाहिये तो जात, धर्म, आरक्षण की पालिटिक्स में माहिर बनो। खेल के नियम जब तय है तो कांग्रेस के लगातार जीतने पर फ़ाउल फ़ाउल क्यों चिल्लाना। यह देश जैसा भी चल रहा है कम से कम चल तो रहा है। इसको मिस्र तो मत बना दो।



और आखिर में दिल्ली पुलिस से मैं अपील करूंगा कि अब मौका लगे तो आम जनता के बजाये इन मीडिया वालो को कूटना। इनको भी तो पता चले पुलिस से टकराव और हिंसा मे जब चोट लगती है तो दर्द कितना होता है।
Comments
5 Comments

5 comments:

  1. इस तरह मीडिया पर सारा दोष डालकर पुलिस और सरकार की नाकामी पर पर्दा नहीं डाला जा सकता !

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  2. बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक अभिव्यक्ति नारी महज एक शरीर नहीं

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  3. बढ़िया,
    जारी रहिये,
    बधाई !!

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  4. aap ko lagtaa haen media ki vajah sae aakrosh haen

    jii nahin bharat ki har mahila , jindgi kae kisi naa kisi mod par is sab sae parichit hotii haen aur wo tang aa gayii haen

    mahila ko daekh kar kitnae haen jo keh saktae haen unhonae whistle nahin kiyaa haen , fikrae nahin kasae haen , galiyaan nahin dii haen

    sabko yae sab mazaak lagtaa haen
    chutki katna aam baat haen , wo bhi mazaak haen

    jabki yae sab sexual harassment haen

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